तीर्थंकर कौन?
तीर्थ को करने वाले या तीर्थ बनाने वाले अर्थात् जिनके होने से तीर्थ बने | जो धर्म तीर्थ को चलाये / स्थापना करें वो तीर्थंकर | तीर्थंकर ही चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं| केवलज्ञान के बाद समवशरण में दिव्य ध्वनि खिरती है, जो गणधर के माध्यम से उपस्थित प्राणी मात्र तक पंहुचती है, और उनका कल्याण होता है|
ये वीतरागी अर्थात् राग द्वेष से रहित (18 दोष से रहित), सर्वज्ञ अर्थात् सब कुछ जानने वाले और हितोपदेशी जो प्राणिमात्र के हित का उपदेश देने वाले हैं|
तीर्थंकर आदिनाथ
जन्म स्थान : अयोध्या
जन्म : तीसरे काल सुषमा सुषमा में (चैत्र कृष्ण नवमी के दिन)
माता : मरुदेवी जी पिता : नाभिराय जी – अंतिम चौदहवें कुलकर (कुलकर को मनु भी कहते हैं)
तीर्थंकर ऋषभदेव का विवाह यशस्वी (नंदा) और सुनन्दा से हुआ| यशस्वी से 100 पुत्र (भरत चक्रवर्ती सहित) और 1 पुत्री (ब्राह्मी), सुनंदा से 1 पुत्र बाहुबली और 1 पुत्री सुंदरी| कुल 101 पुत्र और 2 पुत्रियां
बालक ऋषभदेव का जन्माभिषेक सौधर्म इंद्र ने सुमेरू (सुदर्शन मेरु) पर्वत पर, पांचवे समुन्द्र क्षीरसागर के जल से किया और उनके दाएं पैर के अंगूठे पर बने चिन्ह की आकृति को देखकर उनका चिन्ह बैल निर्धारित किया ।
राजा ऋषभदेव ने ब्राह्मी को ब्राह्मी लिपि (लेखन), सुंदरी को अंक विद्या (गणित), भरत बाहुबली आदि को राजनीति, युद्धकला आदि और राज्य की जनता को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प इन षट्कर्मों का उपदेश दिया।
सामान्यतया तीर्थंकर चतुर्थ काल में ही होते हैं और कुलकर ही भोगभूमि में होते परिवर्तन के साथ मनुष्यों को षट्कर्म के बारे में बताते हैं| परन्तु हुंडाअवसर्पिणी काल की वजह से भगवान आदिनाथ का जन्म तीसरे काल में हुआ और ये उपदेश उन्होंने दिए|
नीलांजना की आकस्मिक मृत्यु उनके वैराग्य का कारण बनी। उन्होंने अपने सभी पुत्रों को राज्य भार सौंपा। उन्होंने 4000 राजाओं के साथ चैत्र कृष्ण नवमी के दिन स्वयं दीक्षा ली। तीर्थंकर स्वयं दीक्षित होते हैं, उनके कोई दीक्षा गुरु नहीं होते|
दीक्षा लेने के छह माह तक तप करने के बाद लगभग सात माह तक उनके आहार की विधि और नवधा भक्ति नहीं मिली। उन्हें प्रथम आहार हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस अक्षय तृतिया के दिन दिया, उनका प्रथम आहार इक्षु रस (गन्ने के रस) का हुआ। राजा श्रेयांस को 8 भव पूर्व का जाती स्मरण हुआ था, उन्होंने दमधर और सागरसेन नाम के चारण ऋद्धिधारी मुनियों को आहार दिया था, उसी से उन्हें पूर्व का स्मरण होने से आहार की विधि ज्ञात हुई।
भगवान ऋषभदेव ने 1000 वर्ष तप किया । उन्हें फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन पुरिमताल वन में अशोक वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ । उनके समवशरण की रचना सौधर्म इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने की । यह कार्य हमेशा कुबेर ही करता है| उनके समवशरण में 84 गणधर (मुख्य गणधर वृषभसेन) थे|
ऋषभदेव जी की आयु 84 लाख पूर्व वर्ष थी । उन्होंने 83 लाख पूर्व वर्ष की आयु बिताकर जिन दीक्षा ली । वो 1 लाख पूर्व वर्ष मुनि रहे । उन्होंने 1 लाख पूर्व वर्ष से 1 हजार वर्ष कम समय उपदेश दिया । 1 हज़ार वर्ष मुनि दीक्षा से केवलज्ञान का समय है|
ऋषभदेव जी ने 10000 केवलज्ञानियों के साथ कैलाश पर्वत (अष्टापद) से माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन मोक्ष प्राप्त किया ।