तीर्थंकर की विभिन्न विशेषताएं –गर्भ
तीर्थंकर भगवान के गर्भ में आने के छह महीने पहले ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर माता के आंगन में त्रिकाल में साढे़ तीन करोड़ रत्नों की वर्षा प्रतिदिन करता है। इस प्रकार छह महीने पहले से लेकर नौ महीने पर्यंत पन्द्रह महीने तक रत्न और सुवर्ण की वर्षा होती रहती है। अनंतर गर्भावतरण के प्रसंग में रात्रि के पिछले प्रहर में माता को सोलह स्वप्न दिखते हैं। वह माता प्रातःकाल राजसभा में आकर अपने पतिदेव से उन स्वप्नों का फल पूछती हैं और वे राजा उन स्वप्नों का फल अपने अवधिज्ञान से बतलाते हैं।
भगवान स्वर्ग से अवतीर्ण होकर माता के गर्भ में सीप के सम्पुट में मोती की तरह सब बाधाओं से निर्मुक्त होकर स्थित हो जाते हैं। उस समय समस्त इन्द्र अपने-अपने यहां होने वाले चिन्हों से भगवान से गर्भवतार का समय जानकर वहां आते हैं और नगर की प्रदक्षिणा देकर भगवान के माता-पिता को नमस्कार करके संगीत, नृत्य, महोत्सव आदि से अनेकों उत्सव मनाकर अपने-अपने स्थानों पर वापस चले जाते हैं
माता को सोलह स्वप्न –
- सबसे प्रथम ऐरावत हाथी के देखने से उत्तम पुत्र प्राप्त होगा।
- धवल, उत्तम बैल को देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा।
- सिंह के देखने से अनन्त बल से युक्त होगा।
- मालाओं के देखने से समीचीन धर्मतीर्थ का चलाने वाला होगा।
- लक्ष्मी को देखने से वह सुमेरू पर्वत के मस्तक पर देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा।
- चन्द्रमा के देखने से समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा।
- सूर्य के देखने से दैदीप्यमान प्रभा का धारक होगा।
- दो कलश देखने से अनेक निधियों को प्राप्त होगा।
- मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा।
- सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा।
- देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा।
- नागेन्द्र का भवन देखने से वह अवधिज्ञान लोचन से सहित होगा।
- चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान होगा और
- निर्धूम अग्नि के देखने से कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाला होगा तथा
- मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि गर्भ में तीर्थंकर भगवान अपना शरीर धारण करेंगे।
तीर्थंकर की विभिन्न विशेषताएं –जन्म
उस दिन राजा श्रेयांस के यहाँ भोजन अक्षीण (कभी ख़त्म न होने वाला) हो गया था| अतः इस दिन को अक्षय तृतीया के नाम से जाना गया| आहार देने पर राजा श्रेयांस के महल में पंचाश्चर्य प्रकट हुए
तीर्थंकर का जन्म होते ही इन्द्रों के आसन कम्पित हो जाते हैं, देवों के मुकुट स्वयं झुक जाते हैं, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने लगती है। उस समय कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवों के भवनों में क्रम से अपने आप ही घंटा, सिंहनाद, भेरी और शंखों के शब्द होने लगते हैं। इन चिन्ह विशेषों से देवगण भगवान के जन्म को समझ लेते हैं।
इन्द्र की आज्ञा पाकर सभी चतुर्निकाय के देवगण और सेनाएं स्वर्ग से निकलती है। सौधर्म इन्द्र इन्द्राणी सहित एक लाख योजन विस्तृत ऐरावत हाथी पर चढ़कर आकर नगरी की त्रिप्रदक्षिणा देकर अयोध्या नगरी में पहुंच जाता है। इन्द्राणी द्वारा प्रसूति ग्रह से लाये गये जिन बालक का दर्शन कर सौधर्म इन्द्र उसे गोद मे लेकर हाथी पर बैठकर सुमेरूपर्वत की ओर प्रस्थान कर देता है। सुमेरू पर्वत पर ईशान कोण की पांडुक शिला पर सिंहासन पर भगवान को विराजमान करके इन्द्र अपनी हजारों भुजाओं के द्वारा हजारों कलशों को एक साथ लेकर जिन बालक का अभिषेक करता है।
अनन्तर इन्द्राणियां भगवान को वस्त्राभरणों से अलंकृत करती हैं। इन्द्र वहीं पर तीर्थंकर का नामकरण कर देते हैं, और दायें पैर के अंगूठे पर चिह्न देखकर चिह्न निर्धारित करते हैं| पुनः वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर तांडव नृत्य आदि करके माता-पिता की पूजा करके भगवान की सेवा के लिए समान अवस्था और समान वेष वाले देवकुमारों को निश्चित कर अपने-अपने स्वर्ग को चले जाते हैं। भगवान माता का दूध नहीं पीते हैं किन्तु इन्द्र के द्वारा हाथ के अॅंगूठे में स्थापित अमृत को पीते हुए- अॅंगूठे को चूसते हुए वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
मति-श्रुत-अवधि तीन ज्ञान के धारी होने से समस्त वाड्.मय को प्रत्यक्ष करने वाला सरस्वती के एकमात्र स्वामी भगवान समस्त लोक के स्वयं गुरू कहलाते हैं अतः वे किसी को गुरू नहीं बनाते हैं। भगवान के जन्म से ही दश अतिशय विशेष होते हैं। भगवान के लिए स्वर्ग के रत्न पिटारों से लाई गई भोगोपभोग सामग्री का गृहस्थाश्रम में भगवान उपभोग करते हैं।
तीर्थंकर की विभिन्न विशेषताएं –तप
किसी निमित्त से या स्वभाव से ही तीर्थंकर को जब वैराग्य होता है तब लौकांतिक देव आकर भगवान के वैराग्य की स्तुति करते हुए अपनी भक्ति प्रगट करते हैं। देवों द्वारा लाई गई पालकी पर भगवान आरूढ़ होते हैं और पहले राजागण अनन्तर विद्याधर मनुष्य उस पालकी को ले जाते हैं पश्चात् देवगण पालकी को दीक्षावन तक ले जाते हैं। वहां शुद्ध शिला पर भगवान विराजमान होकर पंचमुष्टि केशलोंच करके सर्वपरिग्रह त्याग करके ‘ओम् नमः सिद्धेभ्यः‘ कहते हुए दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। भगवान के केशों के इन्द्रगण रत्नपिटारे में रखकर बडे़ आदर से क्षीरसमुद्र में क्षेपण करते हैं। भगवान केवलज्ञान प्रकट होने तक छद्मस्थ अवस्था में मौन रखते हैं।
तीर्थंकर की विभिन्न विशेषताएं –ज्ञान
जब भगवान के ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का नाश हो जाता है, तब उन्हें तीनलोक और अलोक को स्पष्ट एक समय में प्रत्यक्ष दिखलाने वाला ऐसा केवलज्ञान – पूर्णज्ञान प्रकट हो जाता है। उस समय भगवान का आकाश में पांच हजार धनुष ऊपर गमन हो जाता है। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है। इस भूमि से एक हाथ ऊंचाई से समवसरण की सीढि़यां प्रारंभ हो जाती हैं जो कि एक-एक हाथ प्रमाण की बीस हजार रहती हैं। इन सीढि़यों को सभी अंधे, लंगडे़, बालक, वृद्ध, रोगी एक अंतर्मुहूर्त में पार कर लेते हैं।
अरहंत देव स्वभाव से ही पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुखकर जिस समवसरण भूमि में विराजमान होते हैं, उसके चारों ओर प्रदक्षिणारूप् से क्रमपूर्वक बारह गणों के बैठने योग्य बारह सभाऐं होती हैं।
केवलज्ञान प्रकट होने पर तीर्थंकर भगवान को दश अतिशय और प्रकट हो जाते हैं तथा देवों द्वारा किये गये 14 अतिशय प्रकट हो जाते हैं। भगवान के आठ प्रातिहार्य होते हैं तथा चार अनंत चतुष्टय भी प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार भगवान बहुत काल तक धर्मोपदेश देते हुए विहार करते हैं।
अनंतर योग निरोध कर शेष अघातिया कर्मों का भी नाश कर मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं। वहां अनंतानंतकाल तक स्वात्मजन्य सुख का अनुभव करते रहते हैं।