संसार से भीति, धर्म से प्रीति करने की भावना – संवेग भावना
31-08- 2018 हरी पर्वत आगरा में स्थित श्री शांतिसागर सभागार में धर्म सभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने अपनी पीयूष वाणी द्वारा कहा कि दान देने की प्रक्रिया बहुत वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आप अगर धन से किसी का सहयोग नहीं कर सकते तो आप अभयदान, करुणादान तो कर ही सकते हैं। जीवों की रक्षा करने की भावना प्रति समय रखो, प्रति समय सावधानी रखें, जो भी कार्य करो जागरूकता के साथ होशपूर्वक करें।
इसी के साथ आचार्य श्री ने कहा कि सोलह कारण भावना के मध्य आज संवेग भावना संसार, शरीर, भोगों से उदासीन होने की प्रेरणा दे रही है। संसार कैसा है, दुखों से भरा हुआ है, अनेक दुर्घटनाओं से भरपूर है, संसार का स्वरूप जानकर ज्ञानी जीव संसार के राग- रंग में उलझता नहीं है। बाह्य आकर्षणों से प्रभावित नहीं होता। वह संसार में रहता हुआ भी संसार को अपने अंदर बसाता नहीं है। इस संसार में अनंत काल से यह जीव चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है, दुखों का अनुभव कर रहा है।
इन दुखों से छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है कि यह मनुष्य अपने अंदर की आसक्ति घटाए, मोह-ममता की दीवार अलग कर दे। शरीर के स्वरूप का चिंतन करे। कैसा है यह शरीर, मल का खजाना है, रोगों का घर है। ऐसे शरीर की सेवा में ही संसारी प्राणी का समय निकल जाता है। सुबह से रात्रि तक इस शरीर के खातिर ही व्यक्ति कैसे कैसे पाप करता है। ज्ञानी जीव इस शरीर के स्वरूप का चिंतन करता हुआ शरीर को धर्म साधना का निमित्त मानता हुआ शरीर को पेट्रोल सदृश भोजन देता है।
भोगों को जितना यह जीव भोगता है उतनी ही अधिक इच्छाएं बढ़ती है। भोग भोगते समय तो अच्छे प्रतीत होते हैं किंतु उनका परिपाक दुखमय होता है। सुख बाहर नहीं है, वह तो अपने अंदर है उसे आप बाह्य पदार्थों में खोजते हो। भौतिक पदार्थों से जो भी सुख पाते हो वह सुख नहीं सुखाभास है। वास्तविक सुख तो इंद्रियातीत है।
प्रवचन से पूर्व मंगलाचरण, पाद प्रक्षालन और शास्त्र भेंट हुए।