सम्यक्दर्शन
छहढाला की तीसरी ढाल के 12 वें काव्य में कवि दौलतराम जी ने सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वर्णन इस प्रकार किया है
जिन वच में शंका न धार वृष, भव- सुख वांछा भानै।
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्व कुतत्व पिछानै।।
निजगुण अरु पर औगुण ढाँकै, वा निज- धर्म- बढावै।
कामादिक कर वृषते चिगते, निज- पर को सु दिढावै।।12
धर्मी सों गौ- बच्छ- प्रीतिसम, कर जिन- धर्म दिपावै।
इन गुणतें विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै।।
1. नि:शंकित अंग/पहला पैर:- जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये वचनों में सन्देह नहीं करना नि:शंकित अंग है। नि:शंकित अंग पहला पैर है।जब हम चलना चाहते हैं तो बिना किसी शंका के पूरे उत्साह के साथ पहला कदम रखते हैं।उसी प्रकार सबसे पहले जो शंका और भय से रहित होकर धर्म क्षेत्र में प्रवृत्त होता है उसी का नाम नि:शंकित अंग है। निशंकित अंग में अंजन चोर प्रसिद्द हुआ।
2. नि:कांक्षित अंग/पिछला पैर:- धर्म को धारण करके संसार के सुखों की वांछा( इच्छा) नहीं करना नि:कांक्षित अंग है। हमारा पिछला पैर नि:कांक्षित अंग है।जैसे हम पहला पैर शंकारहित होकर रखते हैं वैसे ही पिछला पैर बिना किसी आकांक्षा के उपेक्षा से हटाते हैं।इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष मोक्षमार्ग में बिना किसी आकांक्षा के आगे बढता जाता है। निःकांक्षित अंग में अनन्तमती प्रसिद्द हुई।
3. निर्विचिकित्सा अंग/बाँया हाथ:- मुनियों के मैले शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना निर्विचिकित्सा अंग है। हमारा बाँया हाथ निर्विचिकित्सा अंग है। मनुष्य बाँये हाथ से बिना किसी ग्लानि के अपना मल धोता है।उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि मनुष्य स्वभाव से अपवित्र होते हुए भी रत्नत्रय से पवित्र सन्तों से ग्लानि नहीं करता। निर्विचिकित्सा अंग में राजा उद्दायन प्रसिद्द हुए।
4. अमूढदृष्टि अंग/दाहिना हाथ :- साँचे और झूठे तत्वों की पहचान कर मूढताओं में नहीं फँसना अमूढदृष्टि अंग है। हमारा दाहिना हाथ अमूढदृष्टि अंग है।किसी बात को दृढता पूर्वक महिमा मण्डित करने के लिये हम दाहिना हाथ ही उठाते हैं -उसी प्रकार धर्म क्षेत्र में भी यही है,ऐसा ही है,अन्य नहीं -इस प्रकार की दृढता का सूचक अमूढदृष्टि अंग हमारे दाहिने हाथ के समान है। अमूढ़दृष्टि अंग में रेवती रानी प्रसिद्द हुई।
5. उपगूहन अंग/ नितम्ब :- अपने गुणों को और पर के अवगुणों को प्रकट नहीं करना और अपने धर्म को बताना उपगूहन अंग है। हमारे शरीर में नितम्ब उपगूहन अंग की तरह है।हम नितम्ब को ढककर रखते हैं -अनावृत नहीं करते क्योंकि ऐसा करना लज्जाजनक है।इसी प्रकार ज्ञानी जन दूसरों के दोषों को प्रकट नहीं करते। जिनेन्द्रभक्त सेठ उपगूहन अंग में प्रसिद्द हुए।
6. स्थितिकरण अंग/ पीठ :- काम- विकार आदि के कारण धर्म से भ्रष्ट होते हुए को फिर से धर्म में स्थित कर देना स्थितिकरण अंग है। हमारी पीठ स्थितिकरण अंग की भाँति है।जिस प्रकार हम पीठ पर अधिकतम बोझा रखकर उसे नीचे गिरने नहीं देते -उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि भी स्व तथा पर को धर्म में स्थित करके रखता है तथा उसे नीचे गिरने नहीं देता है। स्थितिकरण अंग में वारिषेण मुनि प्रसिद्द हुए।
7. वात्सल्य अंग/हृदय :- अपने सहधर्मियों से बछड़े पर गाय के प्रेम के समान निष्कपट प्रेम करना वात्सल्य अंग है। हमारे शरीर का हृदय वात्सल्य अंग की भाँति है।जिसके हृदय में धर्मात्माओं के प्रति अनुराग होता है वही वात्सल्य अंग का धारक होता है। वात्सल्य अंग में विष्णुकुमार मुनि प्रसिद्द हुए।
8.प्रभावना अंग/ मस्तक :- जैन धर्म का प्रचार करते हुए अपनी आत्मा को रत्नत्रय से सुशोभित करना, सजाना प्रभावना अंग है। हमारा सिर अंग प्रभावना अंग की तरह है।जैसे शरीर में हमारे चेहरे का,मस्तक का प्रभाव पड़ता है वैसे ही धर्म की प्रभावना से दूसरों पर प्रभाव पड़ता है।प्रभावना अंग में वज्रकुमार मुनि प्रसिद्द हुए।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन के प्रकरण में शरीरस्थ अंग के समान अंग होने से आठ अंगों का वर्णन किया है। इनसे विपरीत आठ दोष होते हैं।