रत्नकरण्ड श्रावकाचार सार
ग्रंथकार – समन्तभद्र स्वामी। महान तेजस्वी विद्वान, प्रभावशाली दार्शनिक, महावादी विजेता, प्रथम संस्कृत कवि एवं प्रथम स्तुतिकार। धर्म, न्याय, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि सभी विद्याओं में निपुण।
जन्म नाम – शान्ति वर्मा, अल्पकाल में श्रमण दीक्षा। समयकाल – विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी।
प्रमुख उपलब्ध रचनाये – स्वयंभू स्तोत्र, आप्त-मीमांसा (देवागम), युक्त्यनुशासन, स्तुतिविद्या, जिनशतक, रत्नकरण्डक श्रावकाचार।
निम्न ग्रन्थ के उल्लेख और मिलते हैं परन्तु वर्तमान में उपलब्ध नहीं – जीवसिद्धि, तत्वानुशासन, प्राकृत व्याकरण, प्रमाण पदार्थ, कर्म प्राकृत टीका, गंधहस्ति महाभाष्य। बहुत परीक्षा प्रधानी, युक्ति के द्वारा निर्णय बिना संतोष नहीं। युक्त्यनुशासन की टीका में विद्यानंद स्वामी ने परीक्षा रुपी नेत्र से सबको देखने वाला लिखा है।
प्रभाचन्द्र और नेमिदत्त कृत कथाओं में उल्लेख – भस्मक व्याधि रोग हुआ, गुरु के पास जाकर समाधि की अनुमति मांगी, गुरु ने अधिक आयु जान दीक्षा छेदकर रोग शांत करने को कहा। राजा शिवकोटि के शिवालय में आने वाला भोग खाकर अपना रोग शांत करने लगे। रोग शांत होने पर भोग बचा रहने से पोल खुल गई। राजा शिवकोटि के आदेश पर कि शिवलिंग को नमस्कार करो, आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा यह मेरा नमस्कार स्वीकार नहीं कर सकेगी। राजा व जनता के सामने स्वयंभू स्तोत्र की रचना करते हुए जब भगवन चन्द्रप्रभ को नमस्कार किया तो शिवपिंडी फट गई और चन्द्रप्रभु भगवान का जिनबिम्ब प्रकट हुआ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार जी में 150 श्लोक, 7 अधिकार – मुख्यतया इनका वर्णन समाहित – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, सल्लेखना एवं प्रतिमा।
ग्रन्थ की प्रमुख विशेषताएं –
1 श्रावक के अष्टमूलगुणों का विवेचन
2 अर्हत पूजन का वैयावृत्य के अंदर स्थान
3 व्रतों में प्रसिद्धि पाने वालों के नामोल्लेख
4 मोहि मुनि की अपेक्षा निर्मोही श्रावक की श्रेष्ठता
5 सम्यग्दर्शन संपन्न मातंग को देवतुल्य कहकर उदार दृष्टिकोण का उपन्यास
6 आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी की श्रावकधर्म सम्बन्धी मान्यताओं को आत्मसात कर स्वतंत्र रूप में श्रावक सम्बन्धी ग्रन्थ का प्रणयन।
सम्यग्दर्शनाधिकार
मंगलाचरण – नमः श्री वर्द्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने।
सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते।।
जिनकी आत्मा ने कर्मरूप कलंक को नष्ट कर दिया है और जिनका केवलज्ञान अलोक सहित तीनों लोकों के विषय में दर्पण के समान जानता है उन श्री वर्द्धमान स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ।
दूसरे में धर्म कहने की बात कहते हुए – मैं कर्मों का विनाश करने वाले उस समीचीन श्रेष्ठ धर्म को कहता हूँ जो जीवों को संसार के दुखों से निकालकर उत्तम सुख (स्वर्ग- मोक्ष) में धारण कराता है।
तीसरे में रत्नत्रय को धर्म बताते हैं – धर्म के स्वामी जिनेन्द्रदेव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को धर्म कहते हैं। जिनके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार की संतति होते हैं।
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तनि, धर्मं धर्मेश्वरा विदुः।
यदीयप्रत्यनीकानि, भवन्ति भवपद्धति।।
चतुर्थ श्लोक से सम्यग्दर्शन का स्वरुप बतलाते हैं।
सच्चे देव शास्त्र गुरु पर तीन मूढ़ताओं से रहित, आठ अंगों सहित तथा आठ मदों से रहित ज्यों का त्यों (यथातथ्य) अविचल श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।
सच्चा देव- वीतरागी (राग द्वेष का विनाश कर दिया है), सर्वज्ञ (सर्व चराचर जगत को जानने वाले), वस्तु- स्वरुप के प्रतिपादक आगम का स्वामी अर्थात मोक्षमार्ग के प्रणेता।
वीतराग – भूख, प्यास, बुढ़ापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिंता, अरति, निद्रा, आश्चर्य, मद, स्वेद और खेद इन अठारह दोषों से रहित।
आप्त के नाम – परमेष्ठी, केवलज्ञानी, विमल, कृतकृत्य, सर्वज्ञ, आदि, मध्य, अंत से रहित, सार्व-सर्वहितकर्ता और हितोपदेशक।
जैसे मृदंग, वादक के हाथ के स्पर्श से बिना अपेक्षा से मधुर ध्वनि करता है, उसी प्रकार हितोपदेशी वीतराग प्रभु प्राणियों के पुण्य के निमित्त से बिना इच्छा सहज ही उपदेश देते हैं। सच्चा शास्त्र – वीतरागी द्वारा कहा गया, इन्द्रादिक देवों द्वारा ग्रहण करने योग्य, अन्य वादियों द्वारा अखंडनीय, प्रत्यक्ष -परोक्ष प्रमाणों से अबाधित, वस्तुस्वरूप का प्रतिपादक, सबका हित करने वाला तथा मिथ्यात्व को नष्ट करने वाला।
सच्चा गुरु – विषयों की आशा के वश से रहित, आरम्भ रहित, परिग्रह रहित, ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन
आठ अंग का स्वरुप
नि:शंकित अंग (अंजन चोर) – सच्चे देव शास्त्र गुरु के विषय में इनका लक्षण यही है, ऐसा ही है और नहीं है तथा और तरह का नहीं है ऐसी अटल अविचल आस्था। लोहे के पानी की तरह (तलवार आदि पर धार करने के बाद पक्का करने के बाद जो पानी/लेप चढ़ाया जाता है)
नि:कांक्षित अंग (अनन्तमती) – इन्द्रिय सुख, कर्म के अधीन, नश्वर, दुखों से मिश्रित, पाप के कारण हैं। इनमें आसक्ति न रखना, विरक्त रहना।
निर्विचिकित्सा अंग (राजा उद्दायन) – स्वभाव से अपवित्र, रत्नत्रय से पवित्र शरीर में ग्लानि से रहित गुणों से प्रेम करना।
अमूढ़दृष्टि अंग (रेवती रानी) – मिथ्या दर्शन आदि तीन और इनमे स्थित जीव में मानसिक सम्मति, वाचनिक प्रशंसा और शारीरिक संपर्क न रखना अर्थात मन, वचन काय से प्रशंसा न करना
उपगूहन (जिनेन्द्रभक्त सेठ) – स्वभाव से पवित्र रत्नत्रय मार्ग (धर्म) की अज्ञानी व असमर्थ मनुष्यों के आश्रय से होने वाली निंदा को ढांकना/ दूर करना
स्थितिकरण (मुनि वारिषेण) – धर्मस्नेही जनों द्वारा सम्यग्दर्शन अथवा चारित्र से विचलित को फिर से स्थित करना
वात्सल्य (विष्णुकुमार मुनि) – सहधर्मी के प्रति सरलता सहित, मायाचार रहित, योग्यता अनुसार पूजा, आदर -सत्कार आदि करना
प्रभावना अंग (वज्रकुमार मुनि) – अज्ञानरूपी अंधकार दूर कर अपनी शक्ति अनुसार जिनशासन के महातम्य को प्रकट करना
अंगहीन सम्यग्दर्शन संसार परंपरा को नष्ट करने में समर्थ नहीं है जिस प्रकार एक अक्षर कम होने से विष मन्त्र प्रभावकारी नहीं रहता।
लोकमूढ़ता – धर्म या स्वकल्याण मानकर लोक में चल रही अन्धविश्वास/ रूढ़ियाँ अपनाना जिनका कोई प्रयोजन नहीं। जैसे – नदी, समुद्र में स्नान करना, बालू -रेत, पत्थर की ढेरियां लगाना, पर्वत से गिरना, आग में जलना, तीसरे रोज शमसान जाकर भस्म इकठ्ठा करना, मृतक का श्राद्ध करना, शीतलाष्टमी को कुम्हार के यहाँ उनके वाहन (गधे) की पूजा करना,
देवमूढ़ता –वरदान प्राप्त करने की इच्छा से रागी -द्वेषी देवताओं की उपासना करना।
गुरुमूढ़ता- परिग्रह, आरम्भ, हिंसा सहित तथा सांसारिक कार्यों में लीन कुलिंगियों को नमस्कार करना
आठ मद – ज्ञान, पूजा (प्रतिष्ठा), कुल (पिता की गोत्र), जाति (माता की गोत्र), बल, ऋद्धि (धन -संपत्ति), तप और शरीर की सुंदरता का मद।
मद से नुकसान – मद से अन्य रत्नत्रयी जीवों को तिरस्कृत करने वाला अपना सम्यग्दर्शन नष्ट कर लेता है।
मद कैसे जीतें – यह विचार करें यदि पाप रोकने के लिए सम्यग्दर्शन है तो अन्य सम्पदा की क्या जरुरत, यदि मिथ्यादर्शन है तो अन्य सम्पदा की कोई सार्थकता नहीं। सम्यग्दर्शन से समृद्ध चांडाल कुल में उत्पन्न होने वाला भी पूज्य (यथायोग्य) है, जिस तरह राख के भीतर ढके हुए अंगार के अंतरंग में तेज और प्रकाश है।
धर्म और अधर्म का फल- कुत्ता भी देव और देव भी कुत्ता पर्याय प्राप्त कर सकता है।सम्यग्दृष्टि को भय, आशा, स्नेह, लोभ के वशीभूत हो कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को प्रणाम/सत्कार न करे। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है, इसे मोक्षमार्ग में कर्णधार-खेवटिया भी कहा है। सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि तथा फल की उत्पत्ति नहीं बनती; जिस प्रकार बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, वृद्धि और फल प्राप्ति नहीं हो सकती।
मोही मुनि से मोक्षमार्ग में स्थित गृहस्थ श्रेष्ठ है।तीनो काल और तीनों लोक में सम्यग्दर्शन के सामान कल्याणकारी कोई दूसरा नहीं, और मिथ्यात्व के सामान अकल्याणकारी नहीं।सम्यग्दृष्टि नरक, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्री पर्याय, निंद्य कुल, विकलांगता, अल्पायु, दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता।सम्यग्दृष्टि ओज (उत्साह), तेज (कांति), विद्या, वीर्य (बल), यश (कीर्ति), वृद्धि (उन्नति), विजय, विभव (संपत्ति), उच्चकुलीन, उत्कृष्ट पुरुषार्थी और मनुष्यों के शिरोमणि होते हैं।
देवताओं के आठ ऋद्धियाँ/ गुण- शरीर को हल्का, भारी, छोटा, बड़ा बना लेना, एकाएक छिप जाना, दूसरों को वश में कर लेना, प्रभावान होना, प्राकाम्य होना, प्राकाम्य वांछित प्राप्त करना। सम्यग्दृष्टि आठ ऋद्धि से पुष्ट, विशेष सुंदरता सहित होते हुए देव और अप्सराओं की सभा में बहुत काल तक आनंद करते हैं।सम्यग्दृष्टि नव निधि, चौदह रत्नों के स्वामी, क्षत्रिय राजाओं को अधीन रखते हुए, छह खण्डों के स्वामी, चक्ररत्न चलाने को समर्थ अर्थात चक्रवर्ती होते हैं।
सम्यग्दर्शन से देवेंद्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती और गणधर (मुनियों में श्रेष्ठ) से पूजनीय, अनेकान्तद्रष्टा, तीनों लोकों के शरणभूत तीर्थंकर होते हैं।सम्यग्दृष्टि जीव बुढ़ापा, रोग, क्षय, बाधा, शोक, भय, शंका इन सब से रहित, अनंत सुख, ज्ञान के वैभव से सहित, विमल (द्रव्यकर्म, भाव कर्म और नोकर्म ) रहित मोक्ष को भी प्राप्त होते हैं।
उपसंहार – सम्यग्दृष्टि इंद्र समूह की महिमा को, चक्रवर्ती के चक्ररत्न को, तीर्थंकर के धर्मचक्र को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होता है।
सम्यग्ज्ञान अधिकार
यथावस्थित वास्तु स्वरुप को, वास्तु के व्यक्तित्व को जो न्यूनता रहित, अतिरिक्तता से रहित, संदेह से रहित यथारूप जानता है आगमज्ञ (गणधर) उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं।
प्रथमानुयोग का लक्षण – जिस ग्रन्थ में चारों पुरुषार्थों, किसी एक महापुरुष का चरित्र और त्रेशठ शलाका पुरुषों के चरित्र का वर्णन है, उन कथा चरित्र और पुराण कहे जाने वाले ग्रंथों को प्रथमानुयोग कहते हैं। उनकर पठन, मनन, उपदेश आदि से पुण्य तथा बोधि और समाधि प्राप्त होती है। यह प्रथमानुयोग सम्यग्ज्ञानका विषय है। आदिपुराण, हरिवंश पुराण, प्रद्युम्न चरित्र आदि प्रथमानुयोग के शास्त्र हैं।
करणानुयोग का लक्षण – जो शास्त्र लोक-अलोक के विभाग को, उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी काल के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को जैसा का तैसा जानता है उसे करणानुयोग कहते हैं। त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि शास्त्र करणानुयोग के शास्त्र हैं।
चरणानुयोग का लक्षण – गृहस्थों और मुनियों के चरित्र का उद्भव, विकास और उसकी रक्षा के अंगस्वरूप शास्त्र जो आत्मानुसंधान की दिशा में प्रवृत्त है, उसे चरणांनुयोग कहते हैं। मूलाचार, अंगार धर्मामृत, पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय।
द्रव्यानुयोग – जो सात तत्व और नौ पदार्थ को प्रकाशित/आलोकित करने वाला दीपक है, वह द्रव्यानुयोग है। षट्खण्डागम, द्रव्यसंग्रह, कषाय पाहुड, गोम्मटसार, समयसार आदि द्रव्यानुयोग के शास्त्र हैं।
सम्यक्चारित्राधिकार
मोहरूपी अंधकार (दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम) के दूर होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से जिसे सम्यग्ज्ञान हुआ है – जिस प्रकार बादल के हट जाने पर धूप और आकाश एक साथ प्रकट होते हैं; ऐसा भव्य जीव (साधु) रागद्वेष की निवृत्ति के लिए सम्यक्चारित्र को प्राप्त होता है।
रागद्वेष की निवृत्ति होने से हिंसादि पांच पापों से स्वयमेव निवृत्ति हो जाती है; क्योंकि जिसे प्रयोजनरूप फल प्राप्ति की इच्छा नहीं ऐसा व्यक्ति राजा की सेवा नहीं करता।सम्यक्चारित्र का लक्षण – पाप के पनाले (नाली) स्वरुप पांच पापों से विरक्त होना सम्यग्ज्ञानी का चारित्र है। चारित्र के भेद – समस्त बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहों से विरक्त मुनि के सकल चारित्र होता है, परिग्रह सहित गृहस्थों के विकल चारित्र होता है। इन्हें, महाव्रत और अणुव्रत भी कहा जाता है।
गृहस्थों का विकल चारित्र के भेद – तीन अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत – इनके भी 5 ,3 ,4 रूप हैं।
अणुव्रताधिकार
अणुव्रत का लक्षण – स्थूल रूप से पांच पापों से विरक्त होना/ त्याग करना अणुव्रत कहलाता है।
अहिंसाणुव्रत का लक्षण – जो त्रियोग (मन, वचन, काय) और कृत, कारित, अनुमोदना रूप संकल्प से त्रस जीवों को नहीं मारता है, गणधर देव अणुव्रत कहते हैं।
5 अतिचार -1 अंग छेदन, 2 बंधन, 3 पीड़न, 4 अतिभारारोपण, 5 आहार -वारणा (यथावश्यक आहार न देना)
अतिचार- निर्धारित व्रत सीमा के उल्लंघन को
अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार
सत्याणुव्रत का लक्षण – स्थूल झूठ न बोलना न बुलवाना और दूसरों की आपत्ति (प्राण का जोखिम) के लिए सत्य भी न बोलना न बुलवाना, महापुरुष सत्याणुव्रत कहते हैं।
5 अतिचार – 1 परिवाद (किसी के साथ गाली गलौच करना), 2 रहोभ्याख्या (दूसरे के गोपनीय तथ्यों को प्रकट करना), 3 पैशून्य (चुगली करना), 4 कूटलेखकरण (जाली दस्तावेज बनाना), 5 न्यासपहारिता (दूसरों की धरोहर हड़पने के लिए वचन कहना)
अचौर्याणुव्रत – जो रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई अन्य की वस्तु को बिना दिए न लेता है न दूसरे को देता है।
अतिचार – चौरप्रयोग (चोरी की योजना, चोरी में सहयोग देना), चौरार्थादान (चोरी का माल खरीदना), विलोप (राजकीय नियमों का उल्लंघन करना), सदृशसन्मिश्र (मिलावट करना), हीनादिक विनिमान (नाप-तौल में कमती-बढ़ती करना)
ब्रह्मचर्याणुव्रत – परस्त्रियों का न तो स्वयं सेवन करना न प्रेरित करना, परदारनिवृत्ति, स्वदारसंतोष व्रत अथवा ब्रह्मचर्याणुव्रत
5 अतिचार – 1 अन्य विवाहाकरण (पारिवारिक दायित्व से बाहर के लोगों के शादी विवाह करने में रूचि लेना), 2 अनंगक्रीडा (स्वाभाविक अंगों को छोड़ अन्य अंगों से काम क्रीड़ा करना), 3 विटत्व (शरीर तथा शब्द से कुचेष्टा करना), 4 इत्वरिकागमन(गलत चाल वाले स्त्री पुरुषों के साथ उठना बैठना), 5 विपुलतृषा (काम की तीव्र लालसा रखना)
परिग्रहपरिमाणाणुव्रत – धन धान्यादि का परिग्रह परिमाण कर उनसे अधिक में निस्पृहता रखना। परिमितपरिग्रह या परिग्रहपरिमाणाणुव्रत।
5 अतिचार – 1 अतिवाहन (आवश्यकता से अधिक वाहन रखना/ अधिक भाग दौड़ करना), 2 अतिसंग्रह (अधिक मुनाफाखोरी की चाहत में जरुरत से ज्यादा संग्रह करना), 3 अतिविस्मय (दूसरों के लाभ आदि को देखकर आश्चर्य/विषाद करना), 4 अतिलोभ (मनचाहा लाभ होने पर भी अधिक लाभ की चाह), 5 अतिभारवाहन (नौकर चाकर और पालतू पशुओं से जरुरत से ज्यादा काम लेना, अधिक भाग-दौड़ करवाना)
अणुव्रत धारण का फल – अतिचार रहित अणुव्रत का पालन निधि रूप है। स्वर्गलोक मिलता है, जहाँ अविधज्ञान, आठ ऋद्धियाँ (अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व) तथा सप्त धातु रहित सुंदर वैक्रियिक शरीर
अणुव्रत में प्रसिद्द व्यक्ति – यमपाल चांडाल, धनदेव, वारिषेण, नीली, जयकुमार — (क्रम से )
पाँचों पापों में प्रसिद्द व्यक्ति – धनश्री, सत्यघोष, तापस, कोतवाल और श्मश्रुनवनीत — (क्रम से)
श्रावक के आठ मूलगुण – गणधर देव पांच अणुव्रत पालन के साथ मधु, मांस, मद्य त्याग को अष्ट मूलगुण कहते हैं।
गुणव्रताधिकार
गुणव्रत – जो मूलगुणों की वृद्धि करे, 1 दिग्व्रत 2 अनर्थदण्ड व्रत 3 भोगोपभोग परिमाण व्रत — ऐसा तीर्थंकर देव आदि उत्तम (आर्य ) पुरुष कहते हैं।
प्रथम गुणव्रत – दिग्व्रत -मरणपर्यन्त सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिए 10 दिशाओं की मर्यादा करके उससे बाहर न जाने का संकल्प/प्रतिज्ञा करना।
मर्यादा कैसे लेते हैं? – दशों दिशाओं के परिमाण में प्रसिद्द समुद्र, नदी, पहाड़ी, जंगल, पर्वत, शहर और योजन को मर्यादा सीमा कहते हैं। पश्चिम में अरब सागर के तट तक, उत्तर में हिमालय पर्वत तक, दक्षिण में चेन्नई तक, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी तक, ऊर्ध्व में 100 मी इस प्रकार। मर्यादा के बाहर निर्जरा – दिग्व्रत धारण करने से मर्यादा के बाहर सूक्ष्म पापों के भी त्याग से अणुव्रत, पांच महाव्रतों की सदृश्यता को प्राप्त होते हैं।
चार कषाय -अनंतानुबंधी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, संज्वलन
दिग्व्रती उपचार से महाव्रती – प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का मंद उदय होने से, जिनका अस्तित्व निर्धारण करना भी कठिन है; चारित्रमोह के परिणाम अणुव्रत उपचार से महाव्रत प्रतीत होते हैं।
महाव्रत का लक्षण – पाँचों पापों का मन, वचन, काय से तथा कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना महाव्रत।
दिग्व्रत के 5 अतिचार – 1 ऊर्ध्व व्यतिक्रम (ऊपर की सीमा का उल्लंघन), 2 अधो व्यतिक्रम (नीचे की सीमा का उल्लंघन) , 3 तिर्यक व्यतिक्रम (दिशा -विदिशाओं की सीमा का उल्लंघन), 4 क्षेत्रवृद्धि (क्षेत्र की मर्यादा बढ़ा लेना), 5 विस्मरण (मर्यादाओं का भूल जाना)
द्वितीय गुणव्रत – अनर्थदण्डव्रत – व्रत धारण करने में अग्रणी तीर्थंकर देव आदि दिशाओं की मर्यादा के भीतर प्रयोजनरहित पापबंध के कारण मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों से विरक्त होने को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं।
पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या – अनर्थदण्ड के पांच भेद।
- पापोपदेश – पशुओं को क्लेश पंहुचाने वाली क्रियाएं, व्यापर, हिंसा, आरम्भ तथा छल आदि के प्रेरक कथा प्रसंगों का बार बार कथन करना।
- हिंसादान – हिंसा के उपकरणों का दिया जाना (फरसा, तलवार, गैंती, अग्नि, आयुध, कुदाली, विष, सांकल)
- अपध्यान – द्वेष भावों से युक्त होने के कारण किसी प्राणी के, धन -धान्य के, मारे-पीटे जाने, बांधे जाने, अंग छेदन, हराये जाने आदि का राग-भाव से युक्त परस्त्री, परधन आदि सामग्रियों का दुष्चिंतन करना।
- दुःश्रुति – आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मद और विषयभोग से चित्त को मलिन करने वाले शास्त्रों को सुनना।
- प्रमादचर्या – बिना किसी प्रयोजन के जमीन खोदना, जल बहाना, आग जलाना, हवा करना, वनस्पति तोडना, घूमना और घुमाना।
अनर्थदण्ड व्रत के 5 अतिचार – 1 कंदर्प (हंसी करते हुए अशिष्ट वचन कहना), 2 कौत्कुच्य (शरीर की कुचेष्टा करना), 3 मौखर्य (व्यर्थ अधिक बोलना), 4 अतिप्रसाधन (भोगोपभोग सामग्री का अनावश्यक से ज्यादा संग्रह करना) और 5 असमीक्ष्य अधिकरण (बिना मतलब के कार्य करना)
तृतीय गुणव्रत – भोगोपभोग परिमाण व्रत – राग से होने वाली विषयों की लालसा के घटाने के लिए परिग्रह परिमाण व्रत (अणुव्रत) में की हुई मर्यादा में भी प्रयोजनभूत इन्द्रियों के विषयों का परिमाण करना।
भोग- पाँचों इन्द्रियों के विषय जो भोगकर छोड़ दिए जाएँ जैसे भोजन
उपभोग – भोगकर फिर भोगने योग्य वस्तु जैसे वस्त्र
मकार का त्याग- त्रस हिंसाकारक मधु व् मांस का त्याग और प्रमाद को दूर करने के लिए मदिरा का त्याग
त्याज्य वस्तुएं – बहु/स्थावर हिंसा कारक – फल थोड़ा हिंसा अधिक, सचित्त, मूली आदि कंदमूल, मक्खन, नीम के फूल, केतकी के फूल इत्यादि ऐसी और वस्तुएं त्याज्य हैं।
अनिष्ट और अनुपसेव्य वस्तुओं का भी त्याग।
योग्य सन्दर्भ में संकल्पपूर्वक जो विरक्ति होती है वह व्रत कहलाती है।
भोग और उपभोग के परिमाण जो नियत समय के लिए किया जाये वह नियम और जो जीवन पर्यन्त के लिए किया जाये वह यम कहलाता है। भोजन, सवारी, शय्या, स्नान, पवित्र अंग में सुगंध पुष्पादिक धारण तथा पान, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत आदि का घडी, पहर, दिन, पक्ष, मास, दो मास, छह मास आदि के लिए त्याग करना।
5 अतिचार – 1 विषय विषत (विषयों से उपेक्षा नहीं करना), 2 अनुस्मृति (भोगे हुए विषयों का बार बार स्मरण करना), 3 अतिलौल्यं (वर्तमान विषयों में लम्पटता रखना), 4 अतितृषानुभव (आगामी विषयों की अधिक तृष्णा रखना) तथा 5 वर्तमान विषयों का अत्यंत आसक्ति पूर्वक अनुभव करना।
शिक्षाव्रत अधिकार
शिक्षाव्रत के भेद – देशावकाशिक, सामयिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य
प्रथम शिक्षाव्रत – देशावकाशिक शिक्षाव्रत – दिग्व्रत (गुणव्रत) में संकल्पित विस्तृत मर्यादा में काल के विभाग से प्रतिदिन त्याग करना।
घर, गली, गावं, खेत, नदी, जंगल और योजन की मर्यादा एक वर्ष, छह माह, दो माह, एक मास, चार मास, पंद्रह दिन और एक दिन या एक नक्षत्र के लिए लेना। सीमाओं के आगे स्थूल और सूक्ष्म पापों का अभाव हो जाने से अणुव्रत, महाव्रत जैसे हो जाते हैं।
5 अतिचार – प्रेषण (मर्यादा के बाहर किसी को भेजना), शब्द (शब्द करना), आनयन (मंगाना), रूपाभिव्यक्ति (शरीर दिखाना), पुद्गल क्षेपो (पत्थर फेंकना)
दूसरा शिक्षाव्रत – सामयिक शिक्षाव्रत – सामयिक के ज्ञाता -गणधर देव आदि मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से सब जगह सामयिक के लिए निश्चित समय तक पाँचों पापों के त्याग को सामायिक कहते हैं।
समयज्ञ, आगम के ज्ञाता – केशबन्धन, मुष्ठिबंधन, पर्यंक बंधन (पालथी मारकर बैठना) या पद्मासन या और कोई आसन, के काल को सामयिक के योग्य समय जानते हैं ।उपद्रवरहित एकांत स्थान में, वन में, एकांत घर या धर्मशाला और चैत्यालय में और पर्वत की गुफा में प्रसन्नचित्त से सामायिक बढ़ाना चाहिए।व्यापार, वैमनस्य आदि से दूर होने पर, मन के विकल्प से भी दूर होकर एकासन/उपवास के दिन सामायिक को बढ़ाना चाहिए।
पाँचों व्रतों की पूर्ती का कारन सामायिक आलस्य से रहित और एकाग्रचित्त सहित श्रावक के द्वारा प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि से बढ़ाना चाहिए। सामायिक के समय आरम्भ, सभी परिग्रह से रहित होने से उस समय गृहस्थ, वस्त्र से ढंके हुए मुनि के समान प्राप्त होता है।
सामायिक को धारण करने वाले मौनपूर्वक और स्थिर होकर शीत, उष्ण, दंशमशक परिषह और उपसर्गों को सहन करे।व्यक्ति सामायिक में अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्यरूप, अनात्मस्वरुप संसार में निवास करता हूँ और मोक्ष उससे विपरीत स्वरुप वाला है इस प्रकार विचारे।
5 अतिचार – 1 मन, 2 वचन, 3 काय की खोटी प्रवृत्ति; 4 अनादर और 5 अस्मरण
तीसरा शिक्षाव्रत – प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत – अष्टमी और चतुर्दशी पर्व के दिन व्रत की वांछा से चारों प्रकार के आहार का त्याग।
उपवास के दिन पांच पाप के कार्य, अलंकार धारण, आरम्भ, सुंगंधित पदार्थ लगाना, पुष्पमालाएं लगाना, पुष्प सूंघना, स्नान, अंजन, नसवार सूंघना आदि का त्याग करना चाहिए। आलस्य रहित होकर उत्कंठित होते हुए धर्मरुपी अमृत को अपने कानों से पीवे और दूसरों को पिलावे और ज्ञान – ध्यान में लवलीन होवे।
चारों प्रकार के आहार का सर्वथा त्याग – उपवास, एक बार भोजन करना – प्रोषध। उपवास के आरम्भ और अंत में एकासन करना प्रोषधोपवास कहलाता है।
5 अतिचार – बिना देखे और बिना शोधे 1 किसी वस्तु को ग्रहण करना, 2 छोड़ना 3 बिछाना 4 अनादर 5 अस्मरण
चौथा शिक्षाव्रत – वैयावृत्य – तप रूप धन से युक्त और सम्यग्दर्शन गुणों के भण्डार गृहत्यागी – मुनि के लिए, विधि अनुसार, प्रतिदान और प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित स्वपर के धर्म के वृद्धि के लिए जो दान दिया जाता है।
सम्यग्दर्शन आदि गुणों की प्रीति से संयमीजनों पर आयी नाना प्रकार की आपत्ति को दूर करना, पैरों का दाबना और अन्य भी जितना उपकार है वह वैयावृत्य कहलाता है।सात गुणों से सहित और शुद्धि से सहित दाता के द्वारा पंच सूना और आरम्भ रहित मुनियों को नवधाभक्ति पूर्वक आहार आदि देना दान माना जाता है।
जैसे जल खून को धो देता है, निर्ग्रन्थ मुनि को दिया दान गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों से संचित कर्म को निश्चय से नष्ट कर देता है।तप के भण्डार मुनियों को प्रणाम करने से उच्च गौत्र, आहार आदि दान देने से भोग, उपासना करने से सम्मान, भक्ति करने से सुंदर रूप तथा स्तुति करने से सुयश प्राप्त किया जाता है। उचित समय में योग्य पात्र को थोड़ा भी दान पृथ्वी में पड़े हुए वट वृक्ष के बीज के समान महातम्य और वैभव से युक्त छाया की प्रचुरता से सहित बहुत भारी अभिलक्षित फल देता है।
चार ज्ञानधारी गणधर देव दान को चार प्रकार के कहते हैं – आहार (राजा श्रीषेण प्रसिद्द), औषधि (वृषभसेना), उपकरण (शास्त्र दान से कौंडेश ग्वाला), आवास (सूकर)
श्रावक को आदर से युक्त होकर प्रतिदिन मनोहर को पूर्ण करने वाली, काम को भस्म करने वाले अरिहंत देव के चरणों में समस्त दुखों को दूर करने वाली पूजा करनी चाहये।
हर्ष विभोर मेंढक ने राजगृह नगर में एक पुष्प के द्वारा भव्य जीवों के आगे अरिहंत भगवान के चरणों की पूजा का महातम्य प्रकट किया।
वैयावृत्य शिक्षाव्रत के पांच अतिचार – 1 हरित पिधान – हरित पत्र आदि से देने योग्य वास्तु को ढंकना, 2 हरित निधाने – हरित पत्र आदि पर देने योग्य वस्तु को रखना, 3 अनादर – वैयावृत्ति/ दान में उत्साह न होना, 4 अस्मरण – दान आदि की विधि जैसे नवधाभक्ति भूल जाना, और 5 ईर्ष्या – दूसरे दातारों से ईर्ष्या करना
सल्लेखनाधिकार – प्रतिकार रहित अर्थात जिसे ठीक न किया जा सके ऐसा उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा, रोग होने पर धर्म के लिए शरीर छोड़ने को गणधर देव सल्लेखना कहते हैं।
सर्वज्ञदेव अंत समय समाधिमरण स्वरुप सल्लेखना को तप का फल कहते हैं अतः यथाशक्ति इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।सल्लेखनाधारी राग, बैर, ममत्वभाव और परिग्रह को छोड़कर स्वच्छ हृदय होता हुआ मधुर वचनों से अपने कुटुम्बी जन तथा परिजनों से क्षमा कराकर स्वयं क्षमा करे।सल्लेखनाधारी कृत, कारित एवं अनुमोदित समस्त पापों की छल-कपट रहित आलोचना करके जीवनपर्यन्त महाव्रतों को धारण करे।
शोक, डर, विषाद, राग-द्वेष और अप्रीति को छोड़कर तथा बल व उत्साह को प्रकट करके अमृत के सामान शास्त्रों से मन को प्रसन्न करना चाहिए।सल्लेखनाधारी को क्रम से अन्न के भोजन को छोड़ते हुए दूध आदि स्निग्ध पदार्थों को बढ़ाना चाहिए, पश्चात दूध आदि स्निग्ध पदार्थों को भी छोड़कर कंजी और उष्ण जल को बढ़ाना चाहिए।कंजी, गर्म जल का भी त्याग करके शक्ति अनुसार उपवास करते हुए पूर्ण तत्परता से पञ्चनमस्कार मंत्र में मन लगाता हुआ शरीर को छोड़े।
सल्लेखना के पांच अतिचार – 1 जीवितशंसा – जीवित रहने की इच्छा, 2 मरणाशंसा – तकलीफ के कारण जल्दी मरने की इच्छा, 3 भय, 4 मित्रस्मृति और 5 निदान – आगामी भोगों की इच्छा करना।
सल्लेखना धारण का फल- धर्मरूपी अमृत का पान करने वाला क्षपक समस्त दुखों के रहित, अंत रहित, सुख के समुद्र स्वरुप मोक्ष निःश्रेयस प्राप्त करता है। कोई क्षपक बहुत समय में समाप्त होने वाले अहमिन्द्र आदि की सुख परम्परा का अनुभव करता है।
जन्म, बुढ़ापा, रोग, मरण, शोक, दुःख और भय से रहित शुद्ध सुख से सहित नित्य अविनाशी मोक्ष माना जाता है।अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनन्तवीर्य, परम उदासीनता, अनंत सुख, तृप्ति और शुद्धि को प्राप्त हीनाधिकता रहित और अवधि से रहित जीव सुख स्वरुप मोक्षरूप निःश्रेयस में निवास करते हैं।
सैंकड़ों कल्प कालों के बीतने पर भी तीनों लोकों में खलबली पैदा करने वाला उपद्रव होने पर भी सिद्धों में विकार नहीं होता।कीट और कीलिमा से रहित कांति वाले सुवर्ण के समान मोक्ष में स्थित सिद्ध परमेष्ठी तीन लोक के अग्रभाग पर चूड़ामणि की शोभा को धारण करते हैं।
सल्लेखना के द्वारा समुपार्जित धर्म बल, परिवार, काम और भोगों से परिपूर्ण प्रतिष्ठा, धन और आज्ञा के ऐश्वर्य तथा संसार को आश्चर्ययुक्त करने वाले स्वर्ग आदि अभ्युदय को फलता है।
प्रतिमाधिकार – तीर्थंकर भगवान के द्वारा श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं कही गई है, जिनमें निश्चय से अपनी अपनी प्रतिमा सम्बन्धी गुण, पूर्व प्रतिमा के गुणों के साथ क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हुए स्थित होते हैं। अर्थात पांचवीं प्रतिमाधारी उससे पहले की चार प्रतिमाओं का पालन भी अवश्य करता है।
प्रथम प्रतिमा – दर्शन प्रतिमा – दोषरहित सम्यग्दर्शन का धारक, संसार, शरीर और भोगों से विरक्त पंचपरमेष्ठी का सेवक, अष्ट मूलगुणों का धारक दार्शनिक श्रावक है।
द्वितीय प्रतिमा – व्रत प्रतिमा – जो शल्य रहित होता हुआ अतिचार रहित पांच अणुव्रतों को और सात शीलव्रतों को धारण करता है, गणधर देव उसे व्रतिक श्रावक कहते हैं।
तृतीय प्रतिमा – सामयिक प्रतिमा – चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त, चार प्रणाम, कायोत्सर्ग से खड़े होकर, यथाजात (निर्ग्रन्थ/परिग्रह का त्यागी होकर), दो बार बैठकर नमस्कार करता है, मन, वचन, काय को शुद्ध रखकर, तीनों संध्याओं में वंदना करता है वह सामयिक प्रतिमाधारी है।
चतुर्थ प्रतिमा – प्रोषधोपवास प्रतिमा – प्रत्येक मास में चारों पर्व के दिनों में अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर प्रोषध नियम को करता हुआ एकाग्रता में तत्पर रहता है, वह प्रोषध प्रतिमाधारी है।
पंचम प्रतिमा – सचित्त त्याग प्रतिमा – जो दयालु कच्चे मूल, शाक, कोंपलों, क़रीर/गाँठ, जमीकंद, फूल और बीजों को नहीं खाता है वह सचित्त त्याग प्रतिमाधारी है। खाने लायक को प्रासुक करके खता है, पानी भी गरम करके पीता है।
छठी प्रतिमा- रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा – प्राणियों पर दयालु चित्त होता हुआ रात्रि में चारों प्रकार के आहार को नहीं खाता है, अनुमोदना भी नहीं करता।
सातवीं प्रतिमा – जो शरीर को मल का बीज, मल का कारण, मल झराने वाला, दुर्गन्धयुक्त और ग्लानि युक्त देखता हुआ कामसेवन से विरत होता है वह ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी कहलाता है।
आठवीं प्रतिमा – आरम्भत्याग प्रतिमा – जो जीव हिंसा के कारण नौकरी, खेती, व्यापार आदि आरम्भ के कामों से विरक्त होता है वह आरम्भ त्याग प्रतिमा का धारक है। (अपने लिए खाना भी नहीं बनाएगा)
नवीं प्रतिमा – परिग्रह त्याग प्रतिमा- बाह्य दस प्रकार के परिग्रहों में ममता को छोड़कर निर्मोही होता हुआ आत्मस्वरूप में स्थित और संतोष में तत्पर है वह सब ओर से चित्त में स्थित परिग्रह से विरत होता है।
दसवीं प्रतिमा – अनुमति त्याग प्रतिमा- आरम्भ के कार्यों से परिग्रहों में और इस लोक सम्बन्धी कार्यों में अनुमोदना नहीं होती है वह समान बुद्धि का धारक श्रावक निश्चय करके अनुमति त्याग प्रतिमाधारी माना गया है।
ग्यारहवीं प्रतिमा – उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा – घर से निकल मुनियों के वन को जाकर गुरु के पास व्रत ग्रहण करके भिक्षा भोजन करता हुआ तपश्चरण करता है, वस्त्र के एक खंड को धारण करता है वह उत्कृष्ट श्रावक या उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी कहलाता है।
श्रेष्ठ ज्ञाता – पाप जीव का शत्रु और धर्म जीव का हितकारी, ऐसा निश्चय करता हुआ आगम को जानने वाला श्रेष्ठ ज्ञाता/ कल्याण का ज्ञाता होता है।
रत्नत्रय का फल – जिस भव्य ने अपनी आत्मा को रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) रूप रत्नों का पिटारा प्राप्त कराया है उसे तीनों लोकों में पति की इच्छा से ही मानो चारों पुरुषार्थों की सिद्धि प्राप्त होती है।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी द्वारा अंतिम मंगल – जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों का दर्शन करने वाली सम्यग्दर्शन लक्ष्मी सुखभूमि होती हुई मुझे उस तरह सुखी करे जिस तरह स्त्री कामी पुरुष को, रक्षित करे जिस तरह निर्दोष शील व्रतों का पालन करने वाली माँ पुत्र को, पवित्र करे जिस तरह गुणों से सुशोभित कन्या कुल को करती है।