जैनधर्म की प्राचीनता
जैन धर्म अनादिनिधन है अर्थात् यह अनादिकाल से है एवं अनन्तकाल तक रहेगा। इसके संस्थापक तीर्थंकर ऋषभदेव, तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं तीर्थंकर महावीर भी नहीं हैं। इतना अवश्य है कि समय-समय पर तीर्थंकरों माध्यम से इसका प्रवर्तन होता रहता है एवं उन्हीं के माध्यम से यह धर्म आगे बढ़ता जाता है। जैसे-भारत का संविधान नहीं बदलता है। मात्र सरकार बदलती रहती है।
प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. राखलदास बनर्जी ने सिन्धुघाटी की सभ्यता का अन्वेषण किया है। यहाँ के उत्खनन में उपलब्ध सील (मोहर) नं. 449 में कुछ लिखा हुआ है। इस लेख को प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार ने जिनेश्वर (जिन-इ-इ-इसर:) पढ़ा है। पुरातत्वज्ञ रायबहादुर चन्द्रा का वक्तव्य है कि सिन्धुघाटी की मोहरों में एक मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें मथुरा की तीर्थंकर ऋषभदेव की खड्गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हीं सब आधारों पर अनेक विद्वानों ने जैनधर्म को सिन्धुघाटी की सभ्यता (5000 वर्ष पुरानी) के काल का माना है।