तत्वार्थ सूत्र और रत्नकरण्ड श्रावकाचार जी में वर्णित 12 व्रतों का तुलनात्मक अध्ययन
तत्वार्थ सूत्र में सप्तम अध्याय में भी इन 12 व्रतों का वर्णन है। वहां पाँचों अणुव्रतों की पांच पांच भावनाएं भी बताई है।
अहिंसा व्रत की पांच भावनाएं – वचन गुप्ति, मनो गुप्ति, ईर्या समिति, आदान -निक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन
सत्य व्रत की पांच भावनाएं – क्रोध, लोभ, भय, हंसी -दिल्लगी का त्याग और हित-मित वचन बोलना।
अचौर्य व्रत की पांच भावनाएं – शून्यागार अर्थात पर्वत की गुफा, वन और वृक्षों के कोटरों में निवास करना, विमोचितवास अर्थात दूसरों के छोड़े हुए उजड़ स्थान में निवास करना, परोपरोधाकरण अर्थात जहाँ ठहरे हो वहां दूसरा ठहरना चाहे तो रोकना नहीं, जहाँ कोई पहले से ठहरा हो उसे हटाकर स्वयं ठहरे नहीं, भैक्ष्य शुद्धि अर्थात शास्त्रोक्त रीति से शुद्ध भिक्षा लेना और सधर्माविसंवाद अर्थात साधर्मी भाइयों से लड़ाई झगड़ा नहीं करना
ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएं – स्त्रियों के विषय में राग उत्त्पन्न करने वाली कथा को न सुनना, स्त्रियों के मनोहर अंगों को न ताकना, पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करना, कामोद्दीपन वाले रसों का सेवन न करना और अपने शरीर को इत्र तेल वगैरह से न सजाना।
परिग्रह त्याग व्रत की भावनाएं – पाँचों इन्द्रियों के इष्ट विषयों से राग नहीं करना और अनिष्ट विषयों से द्वेष नहीं करना ये पांच परिग्रह त्याग व्रत की भावनाएं हैं।
व्रती की परिभाषा – जो शल्य रहित हो उसे व्रती कहते हैं।
तत्वार्थ सूत्र में उमास्वामी महाराज ने दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत को गुणव्रत में लिया है। शिक्षाव्रत में सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोग परिमाण और अतिथि -संविभाग व्रत को लिया है।
जबकि रत्नकरण्डक श्रावकाचार में भोगोपभोग परिमाण गुणव्रत में है और देशावकाशिक व्रत शिक्षाव्रत में। साथ ही, अतिथि -संविभाग की जगह वैयावृत्य नाम दिया है जिसमें अतिथि -संविभाग के अतिरिक्त सेवा भी सम्मिलित है।
जो व्रतों की रक्षा के लिए होते हैं उन्हें शील कहते हैं।
सत्याणुव्रत में अतिचार –रहोभ्याख्यान, कूटलेख क्रिया और न्यासापहार ये तीन दोनों शास्त्र में एक ही हैं। बाकि 2 तत्वार्थसूत्र में मिथ्या उपदेश (झूठे उपदेश देना) और साकार मन्त्र भेद (चर्चा वार्ता, मुख की आकृति से दुसरे के मन की बात को जानकर लोगों पर इसलिए प्रकट कर देना कि उसकी बदनामी हो) हैं। जबकि श्रावकाचार में परिवाद (किसी के साथ गाली गलौच करना) और पैशून्य (चुगली करना)।
ब्रह्मचर्याणुव्रत में अतिचार – तत्वार्थ सूत्र में परिग्रहीत इत्वरिका गमन और अपरिग्रहीत इत्वरिका गमन अलग अलग है, श्रावकाचार में दोनों मिलकर इत्वरिका गमन है अतिरिक्त में विटत्व (शरीर तथा शब्द से कुचेष्टा करना) है।
परिग्रह परिमाण व्रत के अतिचार तत्वार्थ सूत्र में – लोभ में आकर परिमाण की सीमा बढ़ा लेना। जबकि श्रावकाचार में 1 अतिवाहन (आवश्यकता से अधिक वाहन रखना/ अधिक भाग दौड़ करना), 2 अतिसंग्रह (अधिक मुनाफाखोरी की चाहत में जरुरत से ज्यादा संग्रह करना), 3 अतिविस्मय (दूसरों के लाभ आदि को देखकर आश्चर्य/विषाद करना), 4 अतिलोभ (मनचाहा लाभ होने पर भी अधिक लाभ की चाह), 5 अतिभारवाहन (नौकर चाकर और पालतू पशुओं से जरुरत से ज्यादा काम लेना, अधिक भाग-दौड़ करवाना) ये पांच लिए हैं।
अनर्थदण्ड व्रत के पांच अतिचार में से चार समान है। तत्वार्थ सूत्र में एक मौखर्य – धृष्टतापूर्वक आवश्यकता से अधिक बकवाद करना जबकि श्रावकाचार में अतिप्रसाधन (भोगोपभोग सामग्री का अनावश्यक से ज्यादा संग्रह करना) लिया है।
भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार तत्वार्थ सूत्र में केवल भोजन के विषय में लिए हैं – सचित्त आहार (सचेतन पुष्प, पत्र, फल वगैरह का खाना), सचित्त सम्बन्ध आहार (सचित्त वस्तु से सम्बन्ध को प्राप्त हुई वस्तु खाना), सचित्त संमिश्राहार (सचित्त से मिली हुई वस्तु को खाना), अभिषव आहार (इन्द्रियों को मद करने वाली वास्तु को खाना), दुष्पक्काहार (ठीक रीति से नहीं पके हुए भोजन को करना),
जबकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भोग और उपभोग की समस्त वस्तुओं के हिसाब से विस्तृत दिए हैं।
तत्वार्थ सूत्र में अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार
सचित्तनिक्षेप (सचित्त कमल के पत्ते आदि पर रखकर भोजन देना), सचित्त अपधान (भोजन को सचित्त -कमल के पत्ते आदि से ढँक देना), परव्यपदेश (स्वयं दान न देकर दूसरों से दिलवाना या दुसरे का द्रव्य उठाकर स्वयं दे देना), मात्सर्य (आदरपूर्वक न देना अथवा अन्य दाताओं से ईर्ष्या करना), कालातिक्रम (मुनियों को अयोग्य काल में भोजन कराना)
श्रावकाचार जी में वैयावृत्य में शुरू के 2 समान है, चौथे को 2 अलग अलग कर दिया है अनादर और ईर्ष्या नाम से, पांचवां अस्मरण है अर्थात दान आदि की प्रक्रिया में भूल/त्रुटि करना